राजपूत धर्म और संस्कृति के लिए लड़ने वाली जाति है।

 राजपूतों ने मुगलों से अपनी बेटियों का विवाह किया। " इस पंक्ति की रट लगाने वाले तथाकथित बौद्धिक मुझे बता सकते हैं कि ऐसे व्यक्तियों की कुल संख्या कितनी होगी, जिन्होंने अपनी बहन-बेटियों का विवाह मुगल शासकों से किया ? पांच, दस, बीस, पच्चास या अधिक ? कितने होंगे ? 

मैं दावे के साथ कह सकता हूं कि 

दस से अधिक नाम आपको याद नहीं होंगे। 


लेकिन कुछ मानसिक अपाहिज इस तत्कालीन प्रवृत्ति को इतना बढ़ा चढ़ाकर बताते हैं, जैसे राजपूत केवल इसी के कारण अपना अस्तित्व बचाए हुए थे। राजपूत जाति की अदम्य जिजीविषा, त्याग, बलिदान, मुट्ठी भर होकर हजारों से लड़ने-भिड़ने का सामर्थ्य सब व्यर्थ ??? 


मुगलों को बेटियां दीं राजपरिवारों ने। क्या केवल राजपरिवार लड़ते थे ? लड़ने की जिम्मेदारी छोटे से छोटे राजपूत सामंत और ठाकुर तक की होती थी। कुछ लोग केवल इसलिए लड़े, क्योंकि वो राजपूत थे और जानते थे कि लड़ना अपना धर्म है; वरना न वो राजा थे, 

न ठाकुर और न ही सामंत। 


आपको मुगल शासकों को अपनी बेटी देने वाले पांच-दस राजपूत राजा याद हैं, लेकिन हजारों राजपूतों ने देश, धर्म के लिए अपने गले कटवा लिए, अपना पूरा परिवार हवन कर दिया, 

उनका क्या ?? 


यदि राजपूतों का काम मुगलों को अपनी बेटी देने भर से चल रहा था, तो क्या जरूरत थी हजारों क्षत्राणियों को आग में कूद पड़ने की ? 

यदि राजपूत चाकरी कर रहे थे, 

तो एक हजार बरस से कौन लड़ रहा था कि 

हम हिंदू बने रहे, 

हमारे मंदिर बचे रहे ? 


राजस्थान के गांव-गांव में भोमिया जी हुए हैं, जिन्होंने मातृभूमि, धर्म, गाय, ब्राह्मण, स्त्री और मंदिर के लिए अपने प्राणों का उत्सर्ग किया है। क्या इन सारे लोगों ने अपनी बेटियां मुगलों से ब्याही थी ? 


राजपूत मुगल वैवाहिक संबंधों की व्याख्या आप चाहें वैसे करें, कोई आपत्ति नहीं। ऐसे संबंध मेरे गले भी नहीं उतरते। लेकिन इससे राजपूतों की वीरता, उनकी त्याग-वृत्ति धूमिल हो जाती है क्या ? और सबसे दुर्भाग्यपूर्ण यह हैं की राजपूतो ने जिनके लिए  ये सब कीया वहीं आज राजपूतो का पल पल अपमान और उपहास उडा रहे हैं!


राजपूत धर्म और संस्कृति के लिए 

लड़ने वाली जाति है। 

आप चाहें, गालियां दें; 

लेकिन ज्यों गंगा में पत्थर फेंक देने से 

उसकी पावनता भंग नहीं हो जाती, 

वैसे ही राजपूतों को गालियां देने से उनकी तलवार और रक्त से लिखी 

रणरंग आख्यायिका कलुषित नहीं होती।

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